मजदूरी तथा पूंजी

मजदूरी
परिभाषा-: उत्पादन में श्रम तथा सक्रिय योगदान रहता है अतः संयुक्त उत्पत्ति में से श्रम साधन को जो भाग प्राप्त होता है वह मजदूरी कहलाता है।
मजदूरी के प्रकार
1. नकद या मौद्रिक मजदूरी-: किसी श्रम को उसकी सेवा या परीक्षण के बदले जो मुद्रा दी जाती है वह नकद या मौद्रिक मजदूरी कहलाती है।
2. असल या वास्तविक मजदूरी-: एक्स रम अपनी नगद मजदूरी के बदले वह वस्तुओं तथा सेवाओं की जो मात्रा प्राप्त करता है उसे असल मजदूरी कहते है।
मजदूरी का निर्धारण-: सामान्य मूल्य सिद्धांत के अनुसार, मजदूरी का निर्धारण उस बिंदु पर होता है जिस बिंदु पर श्रम की मांग तथा पूर्ति एक दूसरे के बराबर हो जाते हैं इस सिद्धांत को मजदूरी की मांग एवं पूर्ति सिद्धांत भी कहा जाता है।
मान्यताएं
1. उत्पत्ति तथा हानि नियम का क्रियाशील होना।
2. पूर्व प्रतियोगिता का साधन बाजार में पाया जाना।
3. श्रमिकों का समान रूप से कुशल एवं योग्य होना।
श्रम की मांग-: श्रम की मांग मजदूरी की किसी निश्चित दर पर सर में क्योंकि वह संख्या होती है जिसे उत्पादक काम पर लगाना चाहते हैं श्रम की मांग पर निम्न दो बातों पर प्रभाव पड़ता है।
1. श्रमिकों द्वारा तैयार की जाने वाली वस्तुएं-: श्रमिकों द्वारा जो वस्तु तैयार की जाती हैं उन वस्तुओं की मांग पर ही श्रमिकों की मांग निर्भर करती है अर्थात अगर वस्तुओं की मांग अधिक है तो श्रमिकों की मांग भी अधिक होगी वस्तुओं की मांग कम होने पर श्रमिकों की मांग भी कम होगी अतः श्रमिकों की मांग परोक्ष मांग है।
2. उत्पादन के अन्य साधनों की कीमत-: यदि उत्पादन के साधन महंगे हैं तो श्रमिकों की मांग अधिक होगी क्योंकि महंगे साधन के स्थान पर अधिक श्रमिक कार्य करेंगे यदि साधन सस्ते हैं तब मांग घट जाएगी अतः मजदूरी दर तथा श्रमिकों मांग में उल्टा संबंध है।
3. श्रम की पूर्ति-: श्रम की पूर्ति तथा मजदूरी दर में सीधा संबंध होता है उचित मजदूरी पर अधिक श्रमिक तथा निम्न मजदूरी पर कम श्रमिक काम करने के लिए तैयार होते हैं किंतु एक सीमा के पश्चात मजदूरी दर के बढ़ने पर श्रम की पूर्ति कम होने लगती है।
4. मांग एवं पूर्ति का साम्य (मजदूरी का निर्धारण)-: श्रम की अधिकतम मांग की कीमत उसकी सीमांत उत्पादकता के बराबर होती है तथा न्यूनतम प्रति कीमत उसके जीवन स्तर की लागत के बराबर होती है मजदूरी का निर्धारण इन दो सीमाओं के बीच उस बिंदु पर होता है जहां श्रम की मांग उसकी कीमत के बराबर हो जाती है।
पूंजी
परिभाषा-: मनुष्य द्वारा उत्पादित धान का वह भाग जिसका प्रयोग अधिक धन उत्पन्न करने के लिए किया जाता है पूंजी कहलाता है।
पूंजी निम्न प्रकार की होती है।
1. अचल व चल पूंजी।
2. उत्पादन और उपभोग पूंजी।
3. व्यक्तिगत और सार्वजनिक पूंजी।
4. राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पूंजी।
5. देसी व विदेशी पूंजी।
पूंजी के आवश्यक तत्व
1. केवल मनुष्यकृत धन ही पूंजी-: मनुष्य द्वारा उत्पन्न किए गए धन को ही अर्थशास्त्र में पूंजी कहा जाता है अतः प्राकृति द्वारा प्रदान किए गए उपहार पूंजी नहीं है।
2. धन का उपयोग-: केवल उन्हीं वस्तुओं को पूंजी कहा जाता है जिनका उपयोग केवल धन के उत्पादन या अन्य आय के लिए होता है।
4. पूंजी का स्वरूप-: पूंजी, धनराशि या वस्तु किसी भी रूप में हो सकती है।
पूंजी की विशेषता या लक्षण
1. पूंजी बचत का परिणाम-: यदि हम समस्त उत्पादन का उपयोग कर ही लेते हैं तो बचत कुछ नहीं होगी अतः व्यक्तियों द्वारा अपनी आय में से की गई बचत द्वारा ही पूंजी का निर्माण होता है।
2. पूंजी अत्याधिक गतिशील-: पूंजी एक अत्यधिक गतिशील वस्तु है इसमें, उपयोग गतिशीलता तथा स्थान गतिशीलता दोनों पाई जाती हैं।
3. पूंजी उत्पत्ति का मनुष्यकृत साधन-: प्रकृति द्वारा प्रदान की गई वस्तुओं पर श्रम करके ही मनुष्य पूंजी का निर्माण करता है अतः समस्त पूंजी मानव श्रम का परिणाम है।
4. पूंजी में उत्पादकता-: पूंजी में उत्पादकता पाई जाती है क्योंकि पूंजी श्रम व भूमि के सहयोग से बड़ी मात्रा में वस्तुओं और सेवाओं को उत्पन्न करती है।
5. धन के प्रयोग पर निर्भर-: कोई धन पूंजी है या नहीं उसके प्रयोग पर निर्भर करता है ऐसे धन को ही पूंजी कहां जाएगा, जिसका उपयोग आय कमाने या उत्पादन करने में किया जाए।
पूंजी के कार्य तथा महत्व
1. परिवहन की व्यवस्था-: श्रमिकों कच्चे माल आदि को कारखाने तक ले जाने के लिए परिवहन के साधन की आवश्यकता पड़ती है अतः इन सभी की व्यवस्था पुजी की सहायता से की जाती है।
2. श्रमिकों को रोजगार-: जिस देश में उद्योग, कृषि, खानो आदि में पूंजी का अधिक उपयोग किया जाता है वहां श्रमिकों को रोजगार अधिक उपलब्ध होता है।
3. श्रमिकों के जीवन निर्वाह की व्यवस्था-: श्रमिकों को कार्य के बदले उनकी मजदूरी का भुगतान करने के लिए मालिकों के पास पर्याप्त पूंजी होनी चाहिए।
4. बिक्री की व्यवस्था करने में सहायक-: तैयार माल को बाजारों तक ले जाने, उसका स्टॉक रखने तथा ग्राहकों को उधार देने के लिए बड़ी मात्रा में पूंजी की आवश्यकता पड़ती है।
5. उत्पादन की निरंतरता को बनाए रखने में सहायक-: यदि उत्पादक के पास भी पर्याप्त पूंजी है तो वह आगे उत्पादन करके उत्पादन की निरंतरता को बनाए रख सकता है।

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